शनिवार, 20 दिसंबर 2008

हमारे समय का सच...Zeitgeist!



हम दुनिया को जिस रूप में देखते है, उस रूप में वह है नही। अमेरिका को हम जिस रूप में देखते है उस रूप में वह है नही या हम संयुक्त राष्ट्र को जिस रूप में देखते है वह भी उस रूप में नही है। तो फ़िर दुनिया में जो कुछ भी चल रहा है वह किस रूप में है? क्या है जो हमारे आस-पास लगातार हो रहा है, क्यों सरे विश्व में तनाव, चिंता, दुःख, और लड़ाइयाँ बढाती जा रही है। लोगो को हर वक्त अपनी जान गवाने का खतरा महसूस होताहै।

संयुक्त राष्ट्र दुनिया का एक ऐसा संगठन है जो अमेरिकी वीटो पावर के अनुसार काम करता है। जैसा की अमेरिकी सत्ता अपने फायदे के लिए यानि की कुछ पूंजीपतियों के फायदे के लिए चाहेगी, यानि वह पूरी तरह से एक छद्म नाम धारी अमेरिकी संगठन है। बराक ओबामा भले ही अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति निर्वाचित हो गए हो, लेकिन वह भलीभांति जानते है कि उनको इस पद पर पहुचने वाले कौन है। उनके पूरे चुनावी महासमर में अनुदान देने वाले वही पूँजीपति थे जिन्होंने मैक्केन के चुनावी अभियान में भी सहायता दी थी। मतलब चुनाव जनता के बीच दो अलग व्यक्तियों और विचारधाराओं के बीच था परन्तु ये फ़िर भी ये पूंजीपतियों के लिए अपने मन मुताबिक सत्ता चुनने के लिए ये एक कुटिल कर्म मात्र था। जिसमे भोली-भाली जनता को एक ऐतिहाषिक बदलाव में शामिल होने का लुभावना नारा दिया गया, चमड़ी के रंग को हथियार बनाया गया। अमेरिका में युद्ध देश के हितों कि रक्षा लिए नही वहां के बैंकर्स और पूंजीपतियों के हितों के लिए जनता के पैसो से ही रचा जाता है। जिसकी आड़ में चंद व्यवसाई करोडो कमाते है। युद्ध के बाद तबाह हुए देश को फ़िर से बनाने का ठेका इन्ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मिलता है। ये एक ऐसा भ्रष्टाचार है जो सदियों से धर्म, राजनीति और पैसे कि आड़ में खेला जा रहा है। धर्मं जहाँ हमारी भावनाओ को भड़का कर हमारे सोचने समझाने कि शक्ति नष्ट कर देता है, वही राजनीति हमें तरह-तरह कि विचारधाराओ के माध्यम से राम राज्य लाने कि घुट्टी पिलाती है। आज कागज के चंद टुकडो को इतनी अहमियत दे दी गई है कि उसके आगे दुनिया का समस्त ज्ञान-विज्ञान सर झुकाए खड़ा है। क्या सामाजिक व्यवस्था में पैसे का होना जरूरी है?

आजादी के बाद से ही देश में ऐसी ही लूट खसोट जारी है। अनपढ़ और मूर्ख राजनेताओ ने कुछ कागज के टुकडो के लिए देश को न जाने कितनी बार गिरवी रखा है। विश्व बैंक से लिया जाने वाला कर्जा एक नई उपनिवेशिक गुलामी है। कर्ज मिले पैसे को हमें उन्ही के मुताबिक खर्च करना होता है। विकसित देशों का हमारी योजनाओ पर पूरा नियंत्रण होता है, जो कही न कही उनके आर्थिक हितों को संरक्षण देती है। कितने वर्षों से भ्रष्ट और कुटिल राजनेताओं के माध्यम से यह खेल हमारे देश में जारी है। स्विस बैंक में भारतीयों के खातो पर नज़र डाले तो हम पाएंगे की हम दुनिया में दूसरे स्थान पर सबसे ज्यादा अवैध पूँजी एकत्रित किए हुए है। इस पूँजी से हमारे देश की आधे से भी अधिक जनता को एक लाख रुपये दिए जा सकते है। कहने का मतलब कि देश में भ्रष्टाचार किस हद तक हावी है, ये वही नेता है है जिन्हें हम अपना कीमती वोट देकर सत्ता तक पहुचाते है।

मैं सिर्फ़ लोगो से इतना पूछना चाहता हूँ की ये सारे कुकृत्य किसलिए? सिर्फ़ अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए। कहीं न कही पीढियों से पनपी असुरक्षा की भावना है जिसकी वजह से लोग आधिक से अधिक धन एकत्रित करके अपना भविष्य खुशहाल करना चाहते है साथ ही साथ लोगो को वर्त्तमान सामाजिक व्यवस्था और सरकार पर भरोसा नही है कि वह बदले में उन्हें कोई सामाजिक सुरक्षा या सुरक्षित भविष्य दे पाएगी। लोगो को बच्चों का भविष्य अंधकारमय लगता है, इसी लिए लोग वैध-अवैध तरीको से अधिकतम धन संग्रह करना चाहते है। हम अवचेतन में अपने वर्त्तमान राजनैतिक परिद्रश्य में कितने असुरक्षित है, जिसकी वजह से हमें स्वयं का और परिवार का भविष्य अन्धकार में दीख रहा है। ये सवाल ही भ्रष्टाचार कि वजहों को उजागर कर देते है। यह सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था कितनी बदहाल है जो पचास साल बाद भी अपने नागरिको को बुनियादी सुविधाए दे पाने में असमर्थ है कि इस देश में रहने वाला नागरिक हर स्तर पर ख़ुद को असुरक्षित महसूस करता है। इन सबके बीच पर्यावरण और निरीह पशु तो आते ही नही है। पहले तो हम अपने को देखेंगे तब तो दूसरों को। सवाल ये उठता है कि इतना असुरक्षित वातावरण आया कैसे, हम क्यों आज के आधुनिक वैज्ञानिक युग में ख़ुद को इतना असुरक्षित मान रहे है कि हमें अपने भविष्य के लिए अधिक से अधिक धनार्जन करना पड़ रहा है, चाहे हम इसके लिए कुछ भी करे... किसी की जान ले, किसी का खून पिए, किसी का घर उजाडे, प्रकृति को नष्ट करे। इस असुरक्षित समय में हम भूल गए है कि हम सिर्फ़ एक ही परिभाषा में में विश्वाश रखते थे...

सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयः॥
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
माँ फलेषु कदाचनः॥

मेरे कुछ सवालो के जवाब हाल में देखे गए दो वृत्तचित्रों - Zeitgeist & Zeitgeist Addendum और इंटरनेट में एक साईट पर मिले है, हो सकता है कि वह आपके भी कुछ काम के हो। हाल ही में जो सारे विश्व में आर्थिक उठापटक हुई, उसका सच क्या है? हम किस तरह कि दुनिया चाहते है? धर्म का मतलब क्या है? ये सारे जवाब मिलेंगे आपको इन वृत्तचित्रों में। एक बार जरूर देखे। साईट के लिंक यहाँ दे रहा हूँ, वृत्तचित्र आप आसानी से torrent के जरिये डाउनलोड कर सकते है।

http://thezeitgeistmovement.com/home.html
http://www.zeitgeistmovie.com/

रविवार, 12 अक्तूबर 2008

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

रेत पर कतरे


खोया था क्या पाने को
चंचल मन के भरमाने को

रेत के कतरे बीन रहा
पुख्ता दीवार बनने को


फूलो का सत सूख गया
होंठ भी है मुरझाने को

गाँव-गाँव में भटका तू क्यों
अपनी धाक ज़माने को

सड़क अभी तक बाकी है
बहुत दूर तक जाने को

कुँआ अभी भी सूखा है
तेरी प्यास बुझाने को


०८/१०/08

अपनी मर्ज़ी से जीना...


पहले मैं रोज़ कुछ न कुछ लिखता था। अपनी दिनचर्या या किसी गुरु से मिलने वाला ज्ञान। लेकिन अब वह भी नही। लगता है मुझमे लिखने की क्षमता खत्म हो गई है या फ़िर ऐसा कोई गुरु नही मिल रहा है जो मेरी ग्यानलिप्सा को संतुष्ट कर सके। अब तो वो उम्र भी गई जब कोई भी आप पर समाज, देश, क्रांति, विद्रोह, शोषण, गरीबी की बात कर धाक जमा सकता था, अब तो उपरोक्त चीजों की बात करना भी बेमानी हो गया है। आज तो जहाँ देखो हरीतिमा है। गधे घास चार रहे है।

मुझे लगता है अब जीवनयापन उतना मुश्किल नही जितना शान्ति से रहना। भले ही ये सबके साथ न हो पर मेरे साथ तो है। मुझे सारी सुविधाए तो दे दी गई है बदले में मेरा शोषण जारी है। मसलन की मैं टीवी, इन्टरनेट, अखबार, मोबाइल, कपड़े, काफी, कार, पेट्रोल, आलू, प्याज, गेहू, चुनाव, परिवहन, समाजसुधार, विकास आदि इन सभी चीज़ों से बचना चाहता हूँ। वैसे बचूंगा नही, बचा तो डार्विन की विकासवाद की परिभाषा से खारिज कर दिया जाऊंगा। और मेरे जैसे लोगो का ऐसे रह पाना, भगवान् के मिल जाने की तरह असंभव है।

पिताजी ने एक दिन मुझे बड़ा दिलचस्प किस्सा सुनाया, अपने बचपन का। मुझे आश्चर्य हुआ की आज भी उन्हें वो सारी घटनाये ज्यो की त्यों याद है। वे up के उस इलाके से है जिसे आज भी पिछडा मन जाता है। वैसे यूरोप वालो के लिए तो हम भी पिछडे है, तीसरी दुनिया। तो बस समझ लीजिये की वो इंडिया के यूरोप के लिए पिछडा हुआ भारत है। हमारे घर को बड़ी बखरी कहा जाता है, जो एक किलेनुमा चारदीवारी से घिरी थी और उसमे एक बड़ा सा फाटक था। चारदीवारी तो अब खँडहर में बदल गई है। उसके अंदर कई परिवार रहते थे जो आपस में रिश्तेदार थे, उनमे एक थे खजांची भइया। वे किसी राज या पार्टी के खजांची नही थे, पर खजांची थे। शायद अपने घर में पैसो का हिसाब किताब वही करते होंगे। पिताजी ने बताया की जब वे खजांची भइया को देखते थे तो उन्हें बड़ा आश्चर्य होता क्योंकि वे साठ के दशक की उस तीसरी दुनिया में, जब लोग फटी धोतियाँ पहनते थे तब वह रंगीन फैशनेबल पैंट शर्ट पहन कर निकला करते थे। मतलब की ढाई सौ परिवारों के उस गाँव में वह अकेले माडल थे। उनके बड़े-बड़े बाल थे, जेब में कंघी जिसे वह जब-तब अपने बालों में फेरा करते थे। लोग देहाती बोली में बात करते लेकिन वह खड़ी बोली का प्रयोग करते थे। सफ़ेद जूते पहनकर जब वह खट-खट हुए गलियों से निकलते तो मेरे पिताजी छुपकर उन्हें देखा करते थे। उनका पीछा करते थे। खजांची भइया फैशन में ही नही कलाकारी में भी माहिर थे। वह हारमोनियम, ढोलक आदि सब बजा लेते थे। उनका कंठ भी सुरीला था। पिताजी को उनकी इस बहुमुखी प्रतिभा का कोई उदगम नज़र नही आता था। एक भी ऐसा कपड़ा नही था जो मार्केट में लांच होने के बाद सबसे पहले खजांची भइया के बदन में न हो। उन दिनों गाँव में फट्टा टाकीज आया करते थे। फट्टा इसलिए की उनमे अँधेरा बोरे और टाट की फ़त्तियो से किया जाता था। उसमे पिताजी ने अपनी पहली फ़िल्म देखी 'हंटरवाली', तब उन्हें खजांची भइया की प्रतिभा के उदगम स्त्रोत का पता चला।

इस कहानी को लिखने का कारण था सूचना के महत्व को बताना लेकिन आज यही सूचनाये हमारे दिमाग को भ्रमित कर रही है। कौन सी सूचना सही है या ग़लत, कोई नही जनता। इसी सूचना के कारण छोटे बुश अमेरिका की गद्दी पर बैठे, इराक़ का सत्यानाश कर डाला। किस पर यकीन करे? जो सामने दिखेगा उसी को सच माना जाएगा, लेकिन कैसा सच? अपने मन मुताबिक सोच विचार कर, तोड़-मरोड़ कर, दबा-कुचल कर लाया गया सच। बहुत सारी सूचनाये तो तनाव पैदा करती है, अवसाद ग्रस्त करती है। ये सूचनाये न हो कर हमें भ्रमित करने, दिमाग को कुंद करने का हथियार बन गई है।

कहा जाता है की जो चीजे आसानी से मिल जाती है, उनका कोई मूल्य नही होता, यही हुआ सूचनाओ के साथ। अपनी आसानी के कारन इन्होने ने अपनी मूल्य हीनता की है। गंभीरता खत्म की है। गाँधी जी कहते थे की 'रेल देश के भविष्य के लिए अच्छी नही है, देश में अनैतिकता, पाप, लूट-पाट, व्यभिचार का तेजी से प्रसार होगा। सूचनाये तीव्र गति से जायेगी। लोगो की ज़िन्दगी में उथल-पुथल मचेगी।' क्या वे सूचनाओं के दुष्परिणाम के बारे में पहले से जान गए थे? कुछ शायद मुझे रूढिवादी या दकियानूसी कहेंगे, लेकिन वह पहले प्रगति की परिभाषा जाने। जो लोग किसी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते है वो मेरी बात को कुछ हद ता समझ गए होंगे। सुबह आठ से आधी रात तक काम करने के बाद आपके पास करने को रह ही क्या जाता है, क्या ऐसे ही जीवन की कल्पना की थी। कहने को तो आपके पास सारी सुविधाए है, लेकिन उनमे से आप कितनो का उपयोग कर पाते है। ऐसी ज़िन्दगी तो एक जानवर की भी होती है। ये शोषण का नया तरीका है जो हम तीसरी दुनिया को लोगो को बहुत आकर्षक लगता है। हम सब एक मध्यमवर्गीय सपनो को पूरा करने की आकांक्षा को जीते चले जाते है। क्या हम सच में अपने सपनो को जी पाते है? कभी नही, हम सब गुलाम बन चुके है और आने वाली पीढियों को भी गुलाम बनाने के नए तरीके निकाल रहे है जो वैश्विक पूंजीपतियों के सपनो को पूरा करे। हम तो सिर्फ़ उनके खिलौने है , जिनके बलबूते पर वह अपनी आकाँक्षाओं को पर देंगे। वह एक ऐसी व्यवस्था, एक ऐसी शिक्षा का आधार तैयार कर रहे है जो उनके उद्यमों के लिए जरूरी कच्चामाल बन सके वैसे ही जैसा अंग्रेजों ने किया। वे अगेर हमें कुछ देते है तो बदले में हमारा बहुत कुछ ले लेते है। हमारी योजनाये हमारी नही है, उनपर पूरी तरह से उनका नियंत्रण है। वह अपनी अर्थव्यवस्था के अनुरूप हम पर, हमारी योजनाओ पर, बुद्धिजीवियों, नेताओं, समाजसेवकों आदि सब पर नियंत्रण रखते है। ये एक नया तरीका है शोषण का, जिसमे हम अपने बेवकूफ नेताओं की वजह से अनजाने में फंस रहे हैं। अपनी स्वतंत्रता गिरवी रख रहे है।

मध्यमवर्ग, जो बड़े सपने देखता है, उसके यही सपने, लालच अहित कर रहा है। खजांची भइया ठीक कहते थे की 'मैं अपनी मर्ज़ी से जीता हूँ।'

धीरे से साँस लो



वक्त का तकाज़ा है धीरे से साँस लो।
खूंरेज़ है दीवारें दरक न जाए।
जब तक है परदा तेरी सूरत पर मौला
उठाते ही कहीं सूरत न बदल जाए।

२४/०४/08

सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

द्रोणा या रोना......


गोल्डी बहल कि द्रोणा देखकर सिनेमा हाल में दर्शकों को इतना रोना आया कि वहां के हालत बाढ़ जैसे हो गए और कई टाकीजों में शो रद्द करने पड़े। भगवान् बचाए ऐसी फिल्मों और फ़िल्म वालों से जो सिर्फ़ अपना टाइमपास करने के लिए फिल्म बनाते है, जिन्हें ना ही कहानी कि और नाही निर्देशन कि तमीज होती है। हाल में मेरे बगल में बैठा एक लड़का प्रियंका चोपडा द्वारा बार-बार बाबूजी का जिक्र करने पर हंस पड़ता था शायद इसलिए कि बाबु जी का जिक्र इतनी बार था कि फिल्म का नाम द्रोणा नाही बाबु जी होना चाहिए। गोल्डी को ये फ़िल्म बनाने से पहले Timur Bekmambetov कि फ़िल्म wanted देख लेना चाहिए थी, तो शायद वह इस फ़िल्म को थोड़ा बेहतर बना पाते। फ़िल्म कि editing जितनी ही प्रियंका चोपडा और अभिषेक बच्चन कि acting ख़राब है। के.के का काम कुछ बेहतर था, लेकिन एक ऐक्टर के बूते पूरी फ़िल्म नही चलती है।

अब आते है फ़िल्म कि पटकथा पर, कहानी इतनी घिसीपिटी है कि उसमे रोचकता कुछ बचती ही नही है। पृथ्वी में छिपे अमृत के रक्षक को द्रोणा कहते है ये बात हजम नही होती है, किसी भी मिथक कथा में इसका वर्णन नही है, तो फ़िर ये कौन से द्रोणा है? पटकथा के पहले हिस्से में जहाँ अभिषेक बच्चन के बचपन के द्रश्य है वहां उसकी अलौकिकता के बारे में कुछ भी पता नही चलता है, अचानक जब वो उदास होता है तो नीली पंखुडिया उड़ कर आती है जिनसे वह खेलता है। उसको जिस तरह के चरित्रों के साथ वहां फिट किया गया है, वह स्टोरी के साथ मेल नही करते। अचानक एक दिन उसे एक ब्रेसलेट मिलता है जिसकी शक्तियों से वह नावाकिफ है और जादूगर उसे पहचान लेता है। तब लोग उसे बचाने लगते है। ये वे लोग है जो उसके खुफिया पहरेदार है। लेकिन इनका कोई लिंक शुरू में नही है, ये सब इतना अप्रत्याशित है कि पचाना मुश्किल है। फ़िर गोरे हिन्दी बोलते है तो हँसी आती है aur वे बिना लड़े मर भी जाते है। अगर शुरू में ही इस बात का थोड़ा हिंट दिया जाता कि वह कौन लोग है तो रहस्य पैदा होता, बजाय इसके छोटे बच्चन पंखुडियों के पीछे भागे। ब्रेसलेट मिलते ही बच्चन साब हीमैन हो जाते है, जबकि पहले एक मचछर भी नही मारा था। तो क्या ये ब्रेसलेट का चमत्कार था? तो ये ब्रेसलेट छोटे बच्चन को ही क्यों, किसी पहलवान को क्यों नही मिला, वो तो ब्रेसलेट मिलने के बाद कई गुना ज्यादा शक्तिशाली हो जाता। अभी तक कि सारी कहानी लन्दन में है।

अब कहानी इंडिया में... जया जी किले कि छतरियों में खड़ी रोकर गाना गाते हुए छोटे बच्चन का इतेज़ार कर रही है। इतना उबाऊ कथानक है कि अब आगे लिखने का मन ही नही कर रहा है।

सिर्फ़ इतना कि फ़िल्म से गाने हटा दे तो शायद कहानी कुछ समझ आए। special effect में कुछ भी special नही था। सारे द्रश्य दस साल पुराने वीडिओगेम कि याद दिला रहे थे। इस फ़िल्म के बाद छोटे बच्चन और प्रियंका से स्टंट सीन ना कराया जाए तो बेहतर होगा।

गोल्डी बहल को काल और समय (time & space) का बिल्कुल भी ज्ञान नही है, उन्हें शायद मालूम नही है कि वह किस युग में फ़िल्म बना रहे है। उनकी इस फ़िल्म से नागिन फ़िल्म अच्छी है, कम से कम दर्शक एक बार विस्वास तो करता है।

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

एक बजरंगी का दर्द


तितलियों पर नज़र गडाये
बैठे है सब
सबसे रंगीन परों पर अटकी है मेरी आँखे
वह हर फूल पैर जा बैठती है
जलन से कुलबुलाता हु मैं
मुझ पर आकर क्यों नही बैठती है वह?

मेरी जड़े है सबसे गहरी
सबसे ज्यादा सत है मेरे फूलों में
दूर-दूर तक फैली है महक मेरी
फ़िर शिकवा क्यों?

शायद वो जानती है मेरी मनोस्थिति
मेरी कुलबुलाहट में उसे आनंद है

उसे आना ही है मेरे पास
जब चूक जाएगा सभी फूलों का सत

जब वो बैठेगी मेरे फूलों पर
झाँकेगी मेरे अंदर
चूसना चाहेगी मेरा सत
मैं बंद कर लूँगा अपनी पंखुडियां
जकड लूँगा उसे अपने अंदर
वह कुलबुलाएगी
तड़प-तड़प उठेगी
मचलेगी जाने को बाहर
सारे रस्ते होंगे बंद
कि उसके परों पर होगा सिर्फ़ मेरा हक

अब वह सिर्फ़ मेरा ही सत ले
किसी और का नही

कि उसका दूसरे फूलों पर मंडराना
मुझे पसंद नही।
कि उसके पर हों सिर्फ़ मेरे पर।
कि उसका उड़ना हो सिर्फ़ मेरे भीतर।

सोमवार, 22 सितंबर 2008

कहना चाहता हु मैं एक कथा


कहना चाहता हु मैं एक कथा

जो चले सदियों
जो भीतर हो सबके
जिसे जानते हो सब
जिसका न हो कोई अंत

कहना चाहता हु मैं एक कथा

जिसका हर चरित्र बनू मै
जिसका हर शब्द बनू मै
जिसकी भाषा हो मेरी
जिसे पढ़े न कोई
पर याद रहे सबको

कहना चाहता हु मैं एक कथा

जिसे मै देख सकू
छू सकू
जिसमे मै रो सकू
हंस सकू
जिससे न हो कोई आहत
पर मिले न किसी को राहत

कहना चाहता हु मैं एक कथा

जो हो पुरखो का आख्यान
जो बने न धार्मिक किताब
पूजे न जिसे कोई
समझे न जिसे कोई
जो बने न जरूरत किसी की

कहना चाहता हु मैं एक कथा

जिसमे न हो कोई स्त्री
न कोई पुरूष
ना ही प्रकृति
न ही जीवन

जो हो शून्य
अनंत जीवन का सन्यास
किसी रेत के डूहे की भांति
हवा के साथ सरसराती
जो हो अनश्वर

कहना चाहता हु मैं एक कथा


बचपन


बचपन
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कौए के घोसले में नज़र गडाये कोयल
कु कु कु sssssssssss

कोयल को देखता मै
शायद कौया, कोयल के अंडे खाना चाहता है।

कौन किसके अंडे खाता है?

गरमा गर्म आमलेट मुझे पसंद है।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008

कलाम लिखना.......



मसीहा मेरी मौत पर कलाम लिखना

बेखौफ जिंदगियों को सलाम लिखना


कुछ छूट गया है उस बंद गली मे

मिल जाए कही तो ईमान लिखना


बुलबुलों मे बंद रहे ख्याल मेरे

तुम गर लिखना तो बेबाक लिखना


मात नही तो शह भी नही

तुम मेरे नाम बस मात लिखना


चन्द रोज़ बाद चाँद डूब जाएगा

किनारे की रेत पर मेरा नाम लिखना



चिन्मय

२६/०१/08






बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

मां का सपना.....



मां ने कल सपना देखा

भीड़ मे कोई अपना देखा








उसकी आँखे डबडबाई
कुछ मोती झरे
फूल बनकर महक उठे
हम न समझे इस खुशबू को
बस रंग याद रहे फूलों के जो धीरे-धीरे और रंगो मे शामिल होकर
एक दिन काले हो गए
हम कालिमा को ही रंग समझाने लगे
औरों को समझाने लगे
सारी दुनिया कालिमा को रंग समझने लगी
एक दिन ज़ोर से हवा चली
एक खुशबू आई
जैसी बचपन मे आती थी
कुछ मोती झरे
आसमान मे देखा
बादलों मे दो आँखे नज़र आई
किसी क्रेटर मे धंसी हुई



मां ने कल सपना देखा
भीड़ मे कोई अपना देखा



रस्ते जाते बियाबान को
नही किसी को थकते देखा



नागफनी कोई बेच रहा था
पर दिलों मे सबके उगते



कुछ नाज़ुक से धागों को
बड़ी दुकान मे सजते देखा



एक थप्पड़ मे तड़प उठा मैं
बाज़ार मे ख़ुद को बिकते देखा



चुप रहना अब सीख लिया
आईने मे जब चेहरा देखा

चिन्मय
१३/०२/08