मंगलवार, 23 सितंबर 2008
एक बजरंगी का दर्द
तितलियों पर नज़र गडाये
बैठे है सब
सबसे रंगीन परों पर अटकी है मेरी आँखे
वह हर फूल पैर जा बैठती है
जलन से कुलबुलाता हु मैं
मुझ पर आकर क्यों नही बैठती है वह?
मेरी जड़े है सबसे गहरी
सबसे ज्यादा सत है मेरे फूलों में
दूर-दूर तक फैली है महक मेरी
फ़िर शिकवा क्यों?
शायद वो जानती है मेरी मनोस्थिति
मेरी कुलबुलाहट में उसे आनंद है
उसे आना ही है मेरे पास
जब चूक जाएगा सभी फूलों का सत
जब वो बैठेगी मेरे फूलों पर
झाँकेगी मेरे अंदर
चूसना चाहेगी मेरा सत
मैं बंद कर लूँगा अपनी पंखुडियां
जकड लूँगा उसे अपने अंदर
वह कुलबुलाएगी
तड़प-तड़प उठेगी
मचलेगी जाने को बाहर
सारे रस्ते होंगे बंद
कि उसके परों पर होगा सिर्फ़ मेरा हक
अब वह सिर्फ़ मेरा ही सत ले
किसी और का नही
कि उसका दूसरे फूलों पर मंडराना
मुझे पसंद नही।
कि उसके पर हों सिर्फ़ मेरे पर।
कि उसका उड़ना हो सिर्फ़ मेरे भीतर।
सोमवार, 22 सितंबर 2008
कहना चाहता हु मैं एक कथा
कहना चाहता हु मैं एक कथा
जो चले सदियों
जो भीतर हो सबके
जिसे जानते हो सब
जिसका न हो कोई अंत
कहना चाहता हु मैं एक कथा
जिसका हर चरित्र बनू मै
जिसका हर शब्द बनू मै
जिसकी भाषा हो मेरी
जिसे पढ़े न कोई
पर याद रहे सबको
कहना चाहता हु मैं एक कथा
जिसे मै देख सकू
छू सकू
जिसमे मै रो सकू
हंस सकू
जिससे न हो कोई आहत
पर मिले न किसी को राहत
कहना चाहता हु मैं एक कथा
जो हो पुरखो का आख्यान
जो बने न धार्मिक किताब
पूजे न जिसे कोई
समझे न जिसे कोई
जो बने न जरूरत किसी की
कहना चाहता हु मैं एक कथा
जिसमे न हो कोई स्त्री
न कोई पुरूष
ना ही प्रकृति
न ही जीवन
जो हो शून्य
अनंत जीवन का सन्यास
किसी रेत के डूहे की भांति
हवा के साथ सरसराती
जो हो अनश्वर
कहना चाहता हु मैं एक कथा
बचपन
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