मंगलवार, 23 सितंबर 2008

एक बजरंगी का दर्द


तितलियों पर नज़र गडाये
बैठे है सब
सबसे रंगीन परों पर अटकी है मेरी आँखे
वह हर फूल पैर जा बैठती है
जलन से कुलबुलाता हु मैं
मुझ पर आकर क्यों नही बैठती है वह?

मेरी जड़े है सबसे गहरी
सबसे ज्यादा सत है मेरे फूलों में
दूर-दूर तक फैली है महक मेरी
फ़िर शिकवा क्यों?

शायद वो जानती है मेरी मनोस्थिति
मेरी कुलबुलाहट में उसे आनंद है

उसे आना ही है मेरे पास
जब चूक जाएगा सभी फूलों का सत

जब वो बैठेगी मेरे फूलों पर
झाँकेगी मेरे अंदर
चूसना चाहेगी मेरा सत
मैं बंद कर लूँगा अपनी पंखुडियां
जकड लूँगा उसे अपने अंदर
वह कुलबुलाएगी
तड़प-तड़प उठेगी
मचलेगी जाने को बाहर
सारे रस्ते होंगे बंद
कि उसके परों पर होगा सिर्फ़ मेरा हक

अब वह सिर्फ़ मेरा ही सत ले
किसी और का नही

कि उसका दूसरे फूलों पर मंडराना
मुझे पसंद नही।
कि उसके पर हों सिर्फ़ मेरे पर।
कि उसका उड़ना हो सिर्फ़ मेरे भीतर।

कोई टिप्पणी नहीं: