शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

ना जाने क्यों मुक्तिबोध बहुत याद आ रहे है...


उसने मानों मेरी बेवकूफी पर हंसी का ठहाका मारा, कहा, " भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमेरिका है! तुमने लाल ओंठोवाली चमकदार, गोरी- सुनहरी औरतें नहीं देखी, उनके कीमती कपडे नहीं देखे! शानदार मोटरों में घूमने वाले अतिशिक्षित लोग नहीं देखे! नफ़ीस किस्म की वेश्यावृत्ति नहीं देखी! सेमिनार नहीं देखे! एक ज़माने में हम लन्दन जाते थे और इंग्लैंड रिटर्न कहलाते थे और आज हम वाशिंगटन जाते है. तुने मैकमिलन की वह तक़रीर भी पढ़ी होगी जो उसने...... को दी थी उसने कहा था, "यह देश हमारे सैनिक गुट में तो नहीं है, किन्तु संस्कृति और आत्मा से हमारे साथ है." क्या मैकमिलन सफ़ेद झूठ कह रहा था? कतई नहीं. वह एक महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश डाल रहा था."

"और अगर यह सच है तो यह भी सही है की उनकी आत्मा का संकट हमारी संस्कृति और आत्मा का संकट है! यही कारण है कि हमारे लेखक और कवि अमरीकी, ब्रिटिश तथा पश्चिम यूरोपीय साहित्य तथा विचारधाराओ में गोते लगते है और वहां से अपनी आत्मा को शिक्षा और संस्कृति प्रदान करते है! क्या यह झूठ है? हमारे तथाकथित राष्ट्रीय अख़बार और प्रकाशन केंद्र! वे अपनी विचारधारा और दृष्टिकोण कहाँ से लाते है?"

"क्या हमने इण्डोनेशियाई या चीनी या अफ़्रीकी साहित्य से प्रेरणा ली या लुमुम्बा के काव्य से? छीछी ! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्य है. तो मतलब यह कि अगर उनकी संस्कृति हमारी संस्कृति है, उनकी आत्मा हमारी आत्मा है तो उनका संकट हमारा संकट है. मुख्तसिर किस्सा ये कि हिंदुस्तान भी अमेरिका ही है."

"देखा नहीं! ब्रिटिश-अमेरिकी या फ़्रांसिसी कविता में जो मूड्स, जो मनोस्तिथियाँ रहती है - बस वही हमारे यहाँ भी है, लायी जाती है. सुरुचि और आधुनिक भावबोध का तकाजा है कि उन्हें लाया जाय. क्यों? इसलिए कि वहां औद्योगिक सभ्यता है और अब हमारे यहाँ भी. मानों कल-कारखाने खोले जाने से आदर्श और कर्त्तव्य बदल जाते है.

(गजानन माधव मुक्तिबोध कि कहानी "क्लाउड एथरली" का एक अंश)