शनिवार, 3 अप्रैल 2010

क्योंकि...


क्योंकि
हम नहीं जीते बिना तुकबंदी
क्योंकि
हम नहीं चाहते परिचय अपने स्व से
क्योंकि
अनुभूति केवल मर्म है शब्दों में
क्योंकि
रचना व्यर्थ है कागज़ में
क्योंकि
हम सहज है सुख में
क्योंकि
कुछ बाकी नहीं रहा अभिनय में
क्योंकि
आत्मविमुग्ध है हम
क्योंकि
विमर्श नहीं है इच्छा
क्योंकि
मुक्ति नहीं है प्रवचन
क्योंकि
इतिहास नहीं बिना हत्या
क्योंकि
रेट को ढोना आसान नहीं
क्योंकि
अंगूर खट्टे है
क्योंकि
खिसक रही है जमीन
क्योंकि
शब्द नहीं है मेरे पास
क्योंकि
आत्महत्या अच्छा विचार है
क्योंकि
सूख गई है नदी
क्योंकि
संवेदना गई है मिट
क्योंकि
सत्ता है निरंकुश
क्योंकि
जगह नहीं अब
क्योंकि
अहं ब्रम्हास्मि
क्योंकि...
क्यों॥
क॥
अ..

जाने के बाद भी...


यहाँ से जाने के बाद भी
छूट गई हो तुम।

मेरे जेहन में बसी तुम्हारी हंसी, ताज़ा है
सुबह कि ओस कि बूँद कि तरह।
जो तुम्हारे जाने के बाद,
इस रेस्तरां के किसी कोने में छुप गई है।

यहीं, मेरे पास बैठी थी तुम,
बिना कुछ बोले भी बोल रही थी तुम,
आँखों से।
यहाँ से जाने के बाद भी
तुम यही हो
मेरे बगल में, मेरी बाँहों में अपना सर छिपाए
ख़ामोशी में तैरती तस्वीर कि तरह
तुम छूट गई हो,
मेरी आँखों में,
मेरी सांसो में,
रेस्तरां के किसी कोने में।

तुम नहीं हो
फिर भी मै यहाँ बैठा
ढूंढ रहा हूँ तुम्हारी हंसी...

वह फासलों से...


वह फासलों से प्यार करती है।
मेरी बेबसी का अहसास करती है।

रात कि ख़ामोशी छिपाए आगोश में,
धूप-छाँव-बादल-बरखा से बात करती है।

वह फासलों से...

रविवार, 3 जनवरी 2010

बदकिस्मती


मै कभी सोचता था,
कि ख्वाब और मंज़िले एक सी होती है,
जब मिलती है,
तो दोनो के दरमियाँ फासले मिट जाते है,
आज समझ पाता हू,
अलहदा है दोनों,
वैसे ही, जैसे स्वर्ग और जन्नत।
ट्रेन और हवाईजहाज,
एक गरीब और एक अमीर।
दोनों के बीच दूरियाँ अलग
पर शरारते एक सी,
फितरते अलग,
पर बुजदिली एक सी।
रहगुज़र एक
पर बदकिस्मती महफूज़ सी
कौन किसका दर्द पढ़ेगा
अगर मौत हो एक सी।



चिन्मय सांक्रित
०३.०१.10