रविवार, 4 मई 2014

ये रूह तेरी रूह को बेइंतेहा पुकारे...


 











ये रूह तेरी रूह को बेइंतेहा पुकारे...

नाकामियों का दौर भी बड़ा अजीब था
तनहाइयों के पास यादों का सलीब था
फासलों के दरमियाँ ही फासले ख़तम हुए
न मौत कभी मर सकी न गम कभी फ़ना हुए
कभी याद के सहारे, कभी ख्वाब के बहाने
ये रूह तेरी रूह को बेइंतेहा पुकारे


था बड़ा जालिम मगर दिल के करीब था
अश्क बन के रहता था, मेरा रकीब था
रौशनाई छोड़ कर मगरिब में जा बसा
जो भी था, जैसा भी था, मेरा नसीब था
उसकी बेख्याली कैसे दिल से निकालें
ये रूह तेरी रूह को बेइंतेहा पुकारे
ये रूह तेरी रूह को बेइंतेहा पुकारे...



चिन्मय सांकृत    04/05/14

शनिवार, 3 मई 2014


















ऐ दोस्त...
कोई ग़ज़ल हो तो सुनाओ
कभी मेरे लिए भी गुनगुनाओ

उड़ते पंछियों को फिक्र नहीं आसमां की
दोस्त...
मुझे भी ऐसे उड़ने का सलीका सिखाओ

जानता है तू मेरी बेचैनी, उस पार जाने की
दोस्त... दरिया के पार मुझे भी ले जाओ...

मुद्दतों से इंतजार था इस दस्तक का ऐ दोस्त
दहलीज में कब आओगे मुझे भी बताओ...

03/05/14