ये रूह तेरी रूह को बेइंतेहा पुकारे...
नाकामियों का दौर भी बड़ा
अजीब था
तनहाइयों के पास यादों का
सलीब था
फासलों के दरमियाँ ही फासले
ख़तम हुए
न मौत कभी मर सकी न गम कभी फ़ना
हुए
कभी याद के सहारे, कभी ख्वाब
के बहाने
ये रूह तेरी रूह को
बेइंतेहा पुकारे
था बड़ा जालिम मगर दिल के
करीब था
अश्क बन के रहता था, मेरा
रकीब था
रौशनाई छोड़ कर मगरिब में जा
बसा
जो भी था, जैसा भी था, मेरा
नसीब था
उसकी बेख्याली कैसे दिल से
निकालें
ये रूह तेरी रूह को
बेइंतेहा पुकारे
ये रूह तेरी रूह को
बेइंतेहा पुकारे...
चिन्मय सांकृत 04/05/14
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