शुक्रवार, 1 जून 2007

ज़िंदगी.....


ज़िंदगी.....

वक़्त ने थाम लिए क़दम यूँ
क्यों करूँ मैं किसी की बंदगी
बंद है फ़लसफ़े किताब मे
कुछ नही रहा सीवाए ज़िंदगी

नाराज़गी है तो बस ईमान प्र
चाह कर भी तुझको मैं ना पा सका
उधार हैं कुछ मननते खुदा प्र
बेआबरु ना हो सका ए ज़िंदगी

चाँद आज रास्ते मे रुक गया
कुछ दर्द था उस सर्द सी आवाज़ मे
बेवजह क्यों बज रही शहनाईयाँ
इश्तिहार हो गई है ज़िंदगी

सो गई है रात तेरी गोद मे
उड़ गया है रंग मेरे प्यार का
बच गई है कुछ शराब आँख मे
ख्वाब क्यों बिखर रहे हैं ज़िंदगी


chinmay
01/06/07
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