शनिवार, 20 दिसंबर 2008

हमारे समय का सच...Zeitgeist!



हम दुनिया को जिस रूप में देखते है, उस रूप में वह है नही। अमेरिका को हम जिस रूप में देखते है उस रूप में वह है नही या हम संयुक्त राष्ट्र को जिस रूप में देखते है वह भी उस रूप में नही है। तो फ़िर दुनिया में जो कुछ भी चल रहा है वह किस रूप में है? क्या है जो हमारे आस-पास लगातार हो रहा है, क्यों सरे विश्व में तनाव, चिंता, दुःख, और लड़ाइयाँ बढाती जा रही है। लोगो को हर वक्त अपनी जान गवाने का खतरा महसूस होताहै।

संयुक्त राष्ट्र दुनिया का एक ऐसा संगठन है जो अमेरिकी वीटो पावर के अनुसार काम करता है। जैसा की अमेरिकी सत्ता अपने फायदे के लिए यानि की कुछ पूंजीपतियों के फायदे के लिए चाहेगी, यानि वह पूरी तरह से एक छद्म नाम धारी अमेरिकी संगठन है। बराक ओबामा भले ही अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति निर्वाचित हो गए हो, लेकिन वह भलीभांति जानते है कि उनको इस पद पर पहुचने वाले कौन है। उनके पूरे चुनावी महासमर में अनुदान देने वाले वही पूँजीपति थे जिन्होंने मैक्केन के चुनावी अभियान में भी सहायता दी थी। मतलब चुनाव जनता के बीच दो अलग व्यक्तियों और विचारधाराओं के बीच था परन्तु ये फ़िर भी ये पूंजीपतियों के लिए अपने मन मुताबिक सत्ता चुनने के लिए ये एक कुटिल कर्म मात्र था। जिसमे भोली-भाली जनता को एक ऐतिहाषिक बदलाव में शामिल होने का लुभावना नारा दिया गया, चमड़ी के रंग को हथियार बनाया गया। अमेरिका में युद्ध देश के हितों कि रक्षा लिए नही वहां के बैंकर्स और पूंजीपतियों के हितों के लिए जनता के पैसो से ही रचा जाता है। जिसकी आड़ में चंद व्यवसाई करोडो कमाते है। युद्ध के बाद तबाह हुए देश को फ़िर से बनाने का ठेका इन्ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मिलता है। ये एक ऐसा भ्रष्टाचार है जो सदियों से धर्म, राजनीति और पैसे कि आड़ में खेला जा रहा है। धर्मं जहाँ हमारी भावनाओ को भड़का कर हमारे सोचने समझाने कि शक्ति नष्ट कर देता है, वही राजनीति हमें तरह-तरह कि विचारधाराओ के माध्यम से राम राज्य लाने कि घुट्टी पिलाती है। आज कागज के चंद टुकडो को इतनी अहमियत दे दी गई है कि उसके आगे दुनिया का समस्त ज्ञान-विज्ञान सर झुकाए खड़ा है। क्या सामाजिक व्यवस्था में पैसे का होना जरूरी है?

आजादी के बाद से ही देश में ऐसी ही लूट खसोट जारी है। अनपढ़ और मूर्ख राजनेताओ ने कुछ कागज के टुकडो के लिए देश को न जाने कितनी बार गिरवी रखा है। विश्व बैंक से लिया जाने वाला कर्जा एक नई उपनिवेशिक गुलामी है। कर्ज मिले पैसे को हमें उन्ही के मुताबिक खर्च करना होता है। विकसित देशों का हमारी योजनाओ पर पूरा नियंत्रण होता है, जो कही न कही उनके आर्थिक हितों को संरक्षण देती है। कितने वर्षों से भ्रष्ट और कुटिल राजनेताओं के माध्यम से यह खेल हमारे देश में जारी है। स्विस बैंक में भारतीयों के खातो पर नज़र डाले तो हम पाएंगे की हम दुनिया में दूसरे स्थान पर सबसे ज्यादा अवैध पूँजी एकत्रित किए हुए है। इस पूँजी से हमारे देश की आधे से भी अधिक जनता को एक लाख रुपये दिए जा सकते है। कहने का मतलब कि देश में भ्रष्टाचार किस हद तक हावी है, ये वही नेता है है जिन्हें हम अपना कीमती वोट देकर सत्ता तक पहुचाते है।

मैं सिर्फ़ लोगो से इतना पूछना चाहता हूँ की ये सारे कुकृत्य किसलिए? सिर्फ़ अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए। कहीं न कही पीढियों से पनपी असुरक्षा की भावना है जिसकी वजह से लोग आधिक से अधिक धन एकत्रित करके अपना भविष्य खुशहाल करना चाहते है साथ ही साथ लोगो को वर्त्तमान सामाजिक व्यवस्था और सरकार पर भरोसा नही है कि वह बदले में उन्हें कोई सामाजिक सुरक्षा या सुरक्षित भविष्य दे पाएगी। लोगो को बच्चों का भविष्य अंधकारमय लगता है, इसी लिए लोग वैध-अवैध तरीको से अधिकतम धन संग्रह करना चाहते है। हम अवचेतन में अपने वर्त्तमान राजनैतिक परिद्रश्य में कितने असुरक्षित है, जिसकी वजह से हमें स्वयं का और परिवार का भविष्य अन्धकार में दीख रहा है। ये सवाल ही भ्रष्टाचार कि वजहों को उजागर कर देते है। यह सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था कितनी बदहाल है जो पचास साल बाद भी अपने नागरिको को बुनियादी सुविधाए दे पाने में असमर्थ है कि इस देश में रहने वाला नागरिक हर स्तर पर ख़ुद को असुरक्षित महसूस करता है। इन सबके बीच पर्यावरण और निरीह पशु तो आते ही नही है। पहले तो हम अपने को देखेंगे तब तो दूसरों को। सवाल ये उठता है कि इतना असुरक्षित वातावरण आया कैसे, हम क्यों आज के आधुनिक वैज्ञानिक युग में ख़ुद को इतना असुरक्षित मान रहे है कि हमें अपने भविष्य के लिए अधिक से अधिक धनार्जन करना पड़ रहा है, चाहे हम इसके लिए कुछ भी करे... किसी की जान ले, किसी का खून पिए, किसी का घर उजाडे, प्रकृति को नष्ट करे। इस असुरक्षित समय में हम भूल गए है कि हम सिर्फ़ एक ही परिभाषा में में विश्वाश रखते थे...

सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयः॥
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
माँ फलेषु कदाचनः॥

मेरे कुछ सवालो के जवाब हाल में देखे गए दो वृत्तचित्रों - Zeitgeist & Zeitgeist Addendum और इंटरनेट में एक साईट पर मिले है, हो सकता है कि वह आपके भी कुछ काम के हो। हाल ही में जो सारे विश्व में आर्थिक उठापटक हुई, उसका सच क्या है? हम किस तरह कि दुनिया चाहते है? धर्म का मतलब क्या है? ये सारे जवाब मिलेंगे आपको इन वृत्तचित्रों में। एक बार जरूर देखे। साईट के लिंक यहाँ दे रहा हूँ, वृत्तचित्र आप आसानी से torrent के जरिये डाउनलोड कर सकते है।

http://thezeitgeistmovement.com/home.html
http://www.zeitgeistmovie.com/

2 टिप्‍पणियां:

कडुवासच ने कहा…

... प्रसंशनीय सच है।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बहुत सारगर्भित पोस्ट....और आप की लघु फ़िल्म...अद्भुत...वाह...
नीरज