शनिवार, 29 अगस्त 2015

बेदर्द सही...


बेदर्द सही
खुदगर्ज़ सही
बेपरवाह सही
कमबख्त सही

...एकदम सही कहती हो तुम और मुझे मानने में ऐतराज़ भी नहीं. मेरा ये कुबूलना तुम्हारे ख्याल से बीच का रास्ता है. लेकिन तुम तो जानती हो की मुझे रिश्तों में पैबंद लगाने नहीं आते. भावनाओं का बोझा उठाने में पीठ कांपती है.

तेरी हंसी से मुझे मीठी सी झुरझुरी होती है और ये कई दिनों तक लगातार चलती रहती है. कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है की अरसा हो गया तुम्हे हँसे हुए. मुझे उस मीठी सी झुरझुरी की बहुत जरुरत है...

सैकड़ो सूरज जब साथ चमकते है
तेरी आँखों में सैलाब उमड़ता है...

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              चिन्मय 

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

उसके चंपा, पलाश और टेसू...



उसकी देह में बारिश की बूंदे ओस से भीगे पत्तों की तरह छितराई हुई थी. मैं उस देह को छूकर अनंत काल से चली आ रही तपस्या को भंग नहीं कर सकता था. मै उसके भीतर दिपदिपा रहे सैकड़ो चंपा, पलाश और टेसुओं को नहीं बुझा सकता था.

कितना अस्वाभाविक था दुबारा लौट कर आना.
एक दिए से सौ बातियों को भी ना जला पाना.

समेटना उस लहकती वादी को जो हजारो सावन देखने के बाद भी मुर्दा थी. काश! तूने चुन ली होती वो रात जब चाँद नौलखा था और गडरिया बांसुरी बजाते हुए झील के किनारे से गुजरा था. काश! तूने सहेज ली होती उसके पैरो के निशानों की कुछ अनमोल माटी.

तेरी महक आते ही सागौन फिर से फूल उठा. हजारों सालों के प्रेम के बाद जो साल वन अंकुरित हुआ था उसमे आज सृष्टि के अनगिनत नायको के चेहरे जगमगा रहे है. ये तेरी रौनक है जिसे देख बगीचे का गुडहल भी मुस्कुरा रहा है.

ये धारा जो बेहिसाब है. अनियंत्रित सी किसी अभिमंत्रित दिशा में बही जा रही है. किसी छोर के किसी कोर से तुम्हे बहते हुए देखना लेकिन साथ ना बह पाना. तेरी आँख की किसी कोर से फूटा बेहिसाब सोता आज मेरे एकांत बियाबान में खिलखिला रहा है. आषाढ़ की आँधियों की तरह थरथराती तेरी देह की परिक्रमा जो सदियों पहले शुरू की थी, क्या इस देह में पूरी होगी?   मैंने तो अपना सर्वस्व लुटा दिया, क्या तुम कुछ बचा पायी हो अपनी अनंत कोख में मुझे देने के लिए...

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                                                                    चिन्मय 

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

गौरैया का घोसला...



मैंने तुमसे कई बार कहा
गौरैया के पंखों से
घोसला बनाना छोड़ दो
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उस दिन तुम न जाने कहाँ से निकाल लाई मेरा पुराना स्वेटर और  लगी उधेड़ने. ऐसा लगा तुम स्वेटर नहीं मुझे उधेड़ रही हो. इन गुजरे सालों में तुमने मुझे इतना जाना है जितना मै खुद को कई जिंदगियो में भी नहीं जान पाया हूँ.
ये हरा स्वेटर मुझे बहुत पसंद है. तुमने ही तो बुना था. नाप लेते वक़्त जब मैंने पूछा - किसलिए ! Surprise. वो सरप्राइज यही हरा स्वेटर था. इसे तुमने प्यार से बुना था, अब इसकी इक इक परत उधेड़ रही हो.

मै बिलकुल भी समझ नहीं पाया तुम्हे
अस्तित्व में तुम्हारे
तुम तो हो, लेकिन
तुमसे जुदा भी कोई है.
रात की रसोई में
मैंने कई बार
नमक तलाशते देखा है तुम्हे.

उस दिन जब बादल फटे तो लगा की तुम लौट आई हो इक लम्बी यात्रा से. क्या ये सिर्फ संयोग था. गौरैया ने अंडे दिए, तुमने मुझे हरा स्वेटर. इस बार नाप भी तो नहीं लिया.

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                                                चिन्मय 

शनिवार, 25 जुलाई 2015

मुझे पता है...


मुझे पता है
धूप को मुट्ठी में बंद करना
जानती हो तुम

चाँद सितारों के साथ
खेलना भी
आता है तुमको

परछाई के साथ
आँख मिचौली
खूब भाती है तुमको

कैसे ढूंढ लेती हो
घुप्प अंधरे में
उसे...

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                                          चिन्मय


मैंने कहा था न तुमसे...


जब तुम
मीठी नींद सो रही हो
मै शब्द लिख रहा हूँ
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मैंने कहा था न तुमसे
एक कविता लिखूंगा
जो तुम्हारी हंसी की तरह बेबाक
कुछ शब्द बिखेर देगी
मेरी डायरी के पन्नों में

शब्द अभी बिखरे नहीं हैं
खिलखिलाहट बिखरने लगी है
मेरे अंतस में

हाँ..!
मैंने कहा तो था
- लिखूंगा

एक कविता में
तुमको समेट पाना
मुमकिन नहीं होगा
तुम अथाह हो
इक क़तरा तक तो पाया नहीं
मैंने तुम्हारा

चमकीले ख्वाब
तुमनें आकाश की चादर में टाँके थे
सोचती थी
सारी ज़िन्दगी इस चादर को ओढ़ सोती रहूंगी
तुम्हे क्या पता था
जिसे तुमने चादर समझा
वो अनंत अंतरिक्ष है
लेकिन
तुम्हारे चमकीले ख्वाब
सदा के लिए महफूज़ हो गए

तुम देख रही हो ना आसमान
देखो
उन झिलमिल सितारों को
पहचानती हो..!
शायद...

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                               चिन्मय

मैंने कोशिश की तो थी...


मैंने कोशिश की तो थी
तुम्हें बताने की 
लेकिन तब तक 
तुम अपनी लम्बी यात्रा पर निकल चुकी थी. 

उस दिन दरवाज़े तक आ गया था पानी 
हमें बाहर निकलने के लिये पुल चाहिए था
लेकिन तुमने बालों की क्लिप निकाल कर
नाव बनाई और 
उस पार निकल गई 
बालों के खुलने पर बवंडर भी आया
और 
उस पार जाकर भी तुमने 
बाँधा नहीं बालों को 

मै टापू बना 
बवंडर का सामना करता रहा.

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                                   चिन्मय