मंगलवार, 11 अगस्त 2015

उसके चंपा, पलाश और टेसू...



उसकी देह में बारिश की बूंदे ओस से भीगे पत्तों की तरह छितराई हुई थी. मैं उस देह को छूकर अनंत काल से चली आ रही तपस्या को भंग नहीं कर सकता था. मै उसके भीतर दिपदिपा रहे सैकड़ो चंपा, पलाश और टेसुओं को नहीं बुझा सकता था.

कितना अस्वाभाविक था दुबारा लौट कर आना.
एक दिए से सौ बातियों को भी ना जला पाना.

समेटना उस लहकती वादी को जो हजारो सावन देखने के बाद भी मुर्दा थी. काश! तूने चुन ली होती वो रात जब चाँद नौलखा था और गडरिया बांसुरी बजाते हुए झील के किनारे से गुजरा था. काश! तूने सहेज ली होती उसके पैरो के निशानों की कुछ अनमोल माटी.

तेरी महक आते ही सागौन फिर से फूल उठा. हजारों सालों के प्रेम के बाद जो साल वन अंकुरित हुआ था उसमे आज सृष्टि के अनगिनत नायको के चेहरे जगमगा रहे है. ये तेरी रौनक है जिसे देख बगीचे का गुडहल भी मुस्कुरा रहा है.

ये धारा जो बेहिसाब है. अनियंत्रित सी किसी अभिमंत्रित दिशा में बही जा रही है. किसी छोर के किसी कोर से तुम्हे बहते हुए देखना लेकिन साथ ना बह पाना. तेरी आँख की किसी कोर से फूटा बेहिसाब सोता आज मेरे एकांत बियाबान में खिलखिला रहा है. आषाढ़ की आँधियों की तरह थरथराती तेरी देह की परिक्रमा जो सदियों पहले शुरू की थी, क्या इस देह में पूरी होगी?   मैंने तो अपना सर्वस्व लुटा दिया, क्या तुम कुछ बचा पायी हो अपनी अनंत कोख में मुझे देने के लिए...

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                                                                    चिन्मय 

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