सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

द्रोणा या रोना......


गोल्डी बहल कि द्रोणा देखकर सिनेमा हाल में दर्शकों को इतना रोना आया कि वहां के हालत बाढ़ जैसे हो गए और कई टाकीजों में शो रद्द करने पड़े। भगवान् बचाए ऐसी फिल्मों और फ़िल्म वालों से जो सिर्फ़ अपना टाइमपास करने के लिए फिल्म बनाते है, जिन्हें ना ही कहानी कि और नाही निर्देशन कि तमीज होती है। हाल में मेरे बगल में बैठा एक लड़का प्रियंका चोपडा द्वारा बार-बार बाबूजी का जिक्र करने पर हंस पड़ता था शायद इसलिए कि बाबु जी का जिक्र इतनी बार था कि फिल्म का नाम द्रोणा नाही बाबु जी होना चाहिए। गोल्डी को ये फ़िल्म बनाने से पहले Timur Bekmambetov कि फ़िल्म wanted देख लेना चाहिए थी, तो शायद वह इस फ़िल्म को थोड़ा बेहतर बना पाते। फ़िल्म कि editing जितनी ही प्रियंका चोपडा और अभिषेक बच्चन कि acting ख़राब है। के.के का काम कुछ बेहतर था, लेकिन एक ऐक्टर के बूते पूरी फ़िल्म नही चलती है।

अब आते है फ़िल्म कि पटकथा पर, कहानी इतनी घिसीपिटी है कि उसमे रोचकता कुछ बचती ही नही है। पृथ्वी में छिपे अमृत के रक्षक को द्रोणा कहते है ये बात हजम नही होती है, किसी भी मिथक कथा में इसका वर्णन नही है, तो फ़िर ये कौन से द्रोणा है? पटकथा के पहले हिस्से में जहाँ अभिषेक बच्चन के बचपन के द्रश्य है वहां उसकी अलौकिकता के बारे में कुछ भी पता नही चलता है, अचानक जब वो उदास होता है तो नीली पंखुडिया उड़ कर आती है जिनसे वह खेलता है। उसको जिस तरह के चरित्रों के साथ वहां फिट किया गया है, वह स्टोरी के साथ मेल नही करते। अचानक एक दिन उसे एक ब्रेसलेट मिलता है जिसकी शक्तियों से वह नावाकिफ है और जादूगर उसे पहचान लेता है। तब लोग उसे बचाने लगते है। ये वे लोग है जो उसके खुफिया पहरेदार है। लेकिन इनका कोई लिंक शुरू में नही है, ये सब इतना अप्रत्याशित है कि पचाना मुश्किल है। फ़िर गोरे हिन्दी बोलते है तो हँसी आती है aur वे बिना लड़े मर भी जाते है। अगर शुरू में ही इस बात का थोड़ा हिंट दिया जाता कि वह कौन लोग है तो रहस्य पैदा होता, बजाय इसके छोटे बच्चन पंखुडियों के पीछे भागे। ब्रेसलेट मिलते ही बच्चन साब हीमैन हो जाते है, जबकि पहले एक मचछर भी नही मारा था। तो क्या ये ब्रेसलेट का चमत्कार था? तो ये ब्रेसलेट छोटे बच्चन को ही क्यों, किसी पहलवान को क्यों नही मिला, वो तो ब्रेसलेट मिलने के बाद कई गुना ज्यादा शक्तिशाली हो जाता। अभी तक कि सारी कहानी लन्दन में है।

अब कहानी इंडिया में... जया जी किले कि छतरियों में खड़ी रोकर गाना गाते हुए छोटे बच्चन का इतेज़ार कर रही है। इतना उबाऊ कथानक है कि अब आगे लिखने का मन ही नही कर रहा है।

सिर्फ़ इतना कि फ़िल्म से गाने हटा दे तो शायद कहानी कुछ समझ आए। special effect में कुछ भी special नही था। सारे द्रश्य दस साल पुराने वीडिओगेम कि याद दिला रहे थे। इस फ़िल्म के बाद छोटे बच्चन और प्रियंका से स्टंट सीन ना कराया जाए तो बेहतर होगा।

गोल्डी बहल को काल और समय (time & space) का बिल्कुल भी ज्ञान नही है, उन्हें शायद मालूम नही है कि वह किस युग में फ़िल्म बना रहे है। उनकी इस फ़िल्म से नागिन फ़िल्म अच्छी है, कम से कम दर्शक एक बार विस्वास तो करता है।

2 टिप्‍पणियां:

Vivek Gupta ने कहा…

भाई आपने कई सवाल पूछे हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि द्रोणा की टीम को इन सबसे कोई मतलब है उन्हें तो सिर्फ बाक्स ऑफिस की कमाई से मतलब है |

CHINMAY ने कहा…

aap sahi kah rahe hai, lekin box office me bhi colection naam matra ka raha....flop hai.