
कही और जाना था......
राह मे चलते-चलते भटक जाता हू
कही और जाना था, कही और िनकल जाता हू
पता पूछना िकसी से मुनािसब ना समझा
मुकाम क्या है, इसी मे उलझ जाता हू
इक सूरत मेले मे िदखी थी पह्चानी सी
देखते ही मे धुन्ध मे िमल जाता हू
तस्वीरो मे उसका चेह्रा मासूम सा लगता है
पहचान नही पाता, इसिलये भूल जाता हू
िदन तो याद नही दुपट्टे का रन्ग याद है
सर्द सी शाम थी......बस बेजुबान हो जाता हू
आखो का नीला रन्ग िकसी नजूमी की अगूटी है
तैर नही पाता, इसिलये डूब जाता हू
कही और जाना था......
िचन्मय - ०२/०३/०७

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