सोमवार, 28 मई 2007

घनी छाव मे....


घनी छाव मे....

तेरी पलको की घनी छाव मे बैटः,
पल भर को सोचता हू
देखता हू
कुछ रुइ के पन्ख तुम्हारे बालो मे उलझ गये है।

सासो से उटःती श्राबी गन्ध
आखो से उटःता धुआ
लगता है
झील कोहरे मे कुछ िछपा रही है,

भीग गये है खत
कुछ दाग बचे है
कहा है नाम तेरा.....

देखता हू
इक इबारत
तेरी हाथ की मेहदी मे घुली हुइ
मेरी डायरी के पन्नो मे मुस्कुरा रही है
और मै
सुस्ता रहा हू
तेरी पलको की घनी छाव मे.....

िचन्मय - २६/०६/०७

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