मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

अपनी मर्ज़ी से जीना...


पहले मैं रोज़ कुछ न कुछ लिखता था। अपनी दिनचर्या या किसी गुरु से मिलने वाला ज्ञान। लेकिन अब वह भी नही। लगता है मुझमे लिखने की क्षमता खत्म हो गई है या फ़िर ऐसा कोई गुरु नही मिल रहा है जो मेरी ग्यानलिप्सा को संतुष्ट कर सके। अब तो वो उम्र भी गई जब कोई भी आप पर समाज, देश, क्रांति, विद्रोह, शोषण, गरीबी की बात कर धाक जमा सकता था, अब तो उपरोक्त चीजों की बात करना भी बेमानी हो गया है। आज तो जहाँ देखो हरीतिमा है। गधे घास चार रहे है।

मुझे लगता है अब जीवनयापन उतना मुश्किल नही जितना शान्ति से रहना। भले ही ये सबके साथ न हो पर मेरे साथ तो है। मुझे सारी सुविधाए तो दे दी गई है बदले में मेरा शोषण जारी है। मसलन की मैं टीवी, इन्टरनेट, अखबार, मोबाइल, कपड़े, काफी, कार, पेट्रोल, आलू, प्याज, गेहू, चुनाव, परिवहन, समाजसुधार, विकास आदि इन सभी चीज़ों से बचना चाहता हूँ। वैसे बचूंगा नही, बचा तो डार्विन की विकासवाद की परिभाषा से खारिज कर दिया जाऊंगा। और मेरे जैसे लोगो का ऐसे रह पाना, भगवान् के मिल जाने की तरह असंभव है।

पिताजी ने एक दिन मुझे बड़ा दिलचस्प किस्सा सुनाया, अपने बचपन का। मुझे आश्चर्य हुआ की आज भी उन्हें वो सारी घटनाये ज्यो की त्यों याद है। वे up के उस इलाके से है जिसे आज भी पिछडा मन जाता है। वैसे यूरोप वालो के लिए तो हम भी पिछडे है, तीसरी दुनिया। तो बस समझ लीजिये की वो इंडिया के यूरोप के लिए पिछडा हुआ भारत है। हमारे घर को बड़ी बखरी कहा जाता है, जो एक किलेनुमा चारदीवारी से घिरी थी और उसमे एक बड़ा सा फाटक था। चारदीवारी तो अब खँडहर में बदल गई है। उसके अंदर कई परिवार रहते थे जो आपस में रिश्तेदार थे, उनमे एक थे खजांची भइया। वे किसी राज या पार्टी के खजांची नही थे, पर खजांची थे। शायद अपने घर में पैसो का हिसाब किताब वही करते होंगे। पिताजी ने बताया की जब वे खजांची भइया को देखते थे तो उन्हें बड़ा आश्चर्य होता क्योंकि वे साठ के दशक की उस तीसरी दुनिया में, जब लोग फटी धोतियाँ पहनते थे तब वह रंगीन फैशनेबल पैंट शर्ट पहन कर निकला करते थे। मतलब की ढाई सौ परिवारों के उस गाँव में वह अकेले माडल थे। उनके बड़े-बड़े बाल थे, जेब में कंघी जिसे वह जब-तब अपने बालों में फेरा करते थे। लोग देहाती बोली में बात करते लेकिन वह खड़ी बोली का प्रयोग करते थे। सफ़ेद जूते पहनकर जब वह खट-खट हुए गलियों से निकलते तो मेरे पिताजी छुपकर उन्हें देखा करते थे। उनका पीछा करते थे। खजांची भइया फैशन में ही नही कलाकारी में भी माहिर थे। वह हारमोनियम, ढोलक आदि सब बजा लेते थे। उनका कंठ भी सुरीला था। पिताजी को उनकी इस बहुमुखी प्रतिभा का कोई उदगम नज़र नही आता था। एक भी ऐसा कपड़ा नही था जो मार्केट में लांच होने के बाद सबसे पहले खजांची भइया के बदन में न हो। उन दिनों गाँव में फट्टा टाकीज आया करते थे। फट्टा इसलिए की उनमे अँधेरा बोरे और टाट की फ़त्तियो से किया जाता था। उसमे पिताजी ने अपनी पहली फ़िल्म देखी 'हंटरवाली', तब उन्हें खजांची भइया की प्रतिभा के उदगम स्त्रोत का पता चला।

इस कहानी को लिखने का कारण था सूचना के महत्व को बताना लेकिन आज यही सूचनाये हमारे दिमाग को भ्रमित कर रही है। कौन सी सूचना सही है या ग़लत, कोई नही जनता। इसी सूचना के कारण छोटे बुश अमेरिका की गद्दी पर बैठे, इराक़ का सत्यानाश कर डाला। किस पर यकीन करे? जो सामने दिखेगा उसी को सच माना जाएगा, लेकिन कैसा सच? अपने मन मुताबिक सोच विचार कर, तोड़-मरोड़ कर, दबा-कुचल कर लाया गया सच। बहुत सारी सूचनाये तो तनाव पैदा करती है, अवसाद ग्रस्त करती है। ये सूचनाये न हो कर हमें भ्रमित करने, दिमाग को कुंद करने का हथियार बन गई है।

कहा जाता है की जो चीजे आसानी से मिल जाती है, उनका कोई मूल्य नही होता, यही हुआ सूचनाओ के साथ। अपनी आसानी के कारन इन्होने ने अपनी मूल्य हीनता की है। गंभीरता खत्म की है। गाँधी जी कहते थे की 'रेल देश के भविष्य के लिए अच्छी नही है, देश में अनैतिकता, पाप, लूट-पाट, व्यभिचार का तेजी से प्रसार होगा। सूचनाये तीव्र गति से जायेगी। लोगो की ज़िन्दगी में उथल-पुथल मचेगी।' क्या वे सूचनाओं के दुष्परिणाम के बारे में पहले से जान गए थे? कुछ शायद मुझे रूढिवादी या दकियानूसी कहेंगे, लेकिन वह पहले प्रगति की परिभाषा जाने। जो लोग किसी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते है वो मेरी बात को कुछ हद ता समझ गए होंगे। सुबह आठ से आधी रात तक काम करने के बाद आपके पास करने को रह ही क्या जाता है, क्या ऐसे ही जीवन की कल्पना की थी। कहने को तो आपके पास सारी सुविधाए है, लेकिन उनमे से आप कितनो का उपयोग कर पाते है। ऐसी ज़िन्दगी तो एक जानवर की भी होती है। ये शोषण का नया तरीका है जो हम तीसरी दुनिया को लोगो को बहुत आकर्षक लगता है। हम सब एक मध्यमवर्गीय सपनो को पूरा करने की आकांक्षा को जीते चले जाते है। क्या हम सच में अपने सपनो को जी पाते है? कभी नही, हम सब गुलाम बन चुके है और आने वाली पीढियों को भी गुलाम बनाने के नए तरीके निकाल रहे है जो वैश्विक पूंजीपतियों के सपनो को पूरा करे। हम तो सिर्फ़ उनके खिलौने है , जिनके बलबूते पर वह अपनी आकाँक्षाओं को पर देंगे। वह एक ऐसी व्यवस्था, एक ऐसी शिक्षा का आधार तैयार कर रहे है जो उनके उद्यमों के लिए जरूरी कच्चामाल बन सके वैसे ही जैसा अंग्रेजों ने किया। वे अगेर हमें कुछ देते है तो बदले में हमारा बहुत कुछ ले लेते है। हमारी योजनाये हमारी नही है, उनपर पूरी तरह से उनका नियंत्रण है। वह अपनी अर्थव्यवस्था के अनुरूप हम पर, हमारी योजनाओ पर, बुद्धिजीवियों, नेताओं, समाजसेवकों आदि सब पर नियंत्रण रखते है। ये एक नया तरीका है शोषण का, जिसमे हम अपने बेवकूफ नेताओं की वजह से अनजाने में फंस रहे हैं। अपनी स्वतंत्रता गिरवी रख रहे है।

मध्यमवर्ग, जो बड़े सपने देखता है, उसके यही सपने, लालच अहित कर रहा है। खजांची भइया ठीक कहते थे की 'मैं अपनी मर्ज़ी से जीता हूँ।'

7 टिप्‍पणियां:

Vivek Gupta ने कहा…

आप सही बोलतें हैं | अपनी मर्ज़ी से जीना बहुत ज़रूरी है | आपके पिता जी का किस्सा भी अच्छा लगा | मैं भी भोपाल से पड़ा हूँ |

CHINMAY ने कहा…

bhopal me kaha se?

Divya Prakash ने कहा…

चिन्मय
सबसे अच्छी बात है आप लिख रहे हैं ....लिखने वाले एक शब्द भी लिखके के लाख बोलने वालों को पीछे छोड़ देता हैं....
आपकी दुविधा साफ दिख रही है लेखनी में .....आपका कहानी का प्लाट अच्छा था लेकिन ..बात उतने जोरदार तरीके से नहीं कही गयीई जितनी खजांची भैया के साथ कही जा सकती थी ....
आप लिख रहे हैं ..उसके लिए बहुत बहुत साधुवाद ...
सादर
दिव्य प्रकाश दुबे

CHINMAY ने कहा…

thanks.... divya ji. darasal khajanchi bhaiya ki kahani itni hi pitaji ne mujhe sunai thi.

seema gupta ने कहा…

"oh, really mind blowing'

regards

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

ऐ भाई.....आपने तो गजब ही कह डाला....मैं तो महज अपने दोस्त चिन्मय के साथ बैठा उसका नाम टाइप कर चिन्मयों "को"खोज रहा था...क्या पता था कि आपसे मिलना है...आपकी "आकार" देखी....."रेत" पढ़ी...और अब यह आलेख....बाप-रे-बाप....क्या गहरा सोचते हो आप...मैं तो दंग रह गया...गजब...गज्जब...अज्जब...अद्भुत...
और क्या कहूँ....बस...!!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

चिन्मय भाई, मैं अपने ब्लॉग में प्लेबैक संगीत चलाना चाहता हूँ....जिसमे कोई मेरा ब्लॉग खोले तो जब तक वो ब्लॉग खोले रहे उसे मेरे द्वारा रचित संगीत सुनाई देता रहे....क्या ये सम्भव है...??यदि हाँ तो कैसे..??अगर आपको फुर्सत रहती हो तो कृपया मेरा मार्गदर्शन करें..मैं इसमें अभी नया हूँ...और अपने काम में अत्यन्त व्यस्त खूंटे से बंधा एक प्राणी हूँ...आशा है...यदि आपको टाइम हो तो मुझे सहयोग प्राप्त हो...आपका राजीव थेपड़ा....रांची...झारखण्ड....

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