रविवार, 12 अक्टूबर 2008

बुधवार, 8 अक्टूबर 2008

रेत पर कतरे


खोया था क्या पाने को
चंचल मन के भरमाने को

रेत के कतरे बीन रहा
पुख्ता दीवार बनने को


फूलो का सत सूख गया
होंठ भी है मुरझाने को

गाँव-गाँव में भटका तू क्यों
अपनी धाक ज़माने को

सड़क अभी तक बाकी है
बहुत दूर तक जाने को

कुँआ अभी भी सूखा है
तेरी प्यास बुझाने को


०८/१०/08